बेसुध
फ़िक्रमंद
तेरी चाहत में खुदी को कुर्बान किया है हमने
वह तुम हो
बेरुख
बेफ़िक्र
मेरी रूह को पैरों तले रौंद दिया है तुमने
वह तुम हो
उड़ती हुई
झूमती हुई
आसमाँ में हवाओं से बातें करती हुई
यह मैं हूँ
गिरता हुआ
तड़पता हुआ
ज़मीन से लिपटकर धूल चाटता हुआ
यह मैं हूँ
तेरी हर हँसी पे मुस्कुराता हुआ
तेरे हर आँसू को अपना बनाता हुआ
वह तुम हो
मेरी हर गुहार को अनसुनी करती हुई
मेरे ज़ख्मों को अनदेखा करती हुई
अब और नहीं।
बस और नहीं।
to moving on and breaking free..of loving and loving more..
ReplyDeleteTouching...!! :)
Poignant
ReplyDeleteProfound
ReplyDeleteWow, I loved this one. The pathos came out beautifully - and the final scream for freedom, great!! One must always get up every time one falls. Dhool bhi dharti maa ka ek roop hai, hawa jaisa hi tattva hai. As air, so earth. :)
ReplyDelete